फिलिप्स वक्र क्या है (What is Phillips Curve)?
1950 में, जब अर्थशास्त्र मांग वृद्धि स्फीति तथा लागत वृद्धि स्फीति की विवादास्पद समस्या में उलझे हुए थे, लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रो० एन० डब्ल्यू० फिलिप्स (N. W. Phillips) ने अपना एक शोधपत्र “The relation between unemployment and the Rate of Change in Money Wages Rates in United Kingdom.” प्रकाशित किया। फिलिप्स ने ब्रिटेन के 1861 से 1957 के बीच बेरोजगारी के प्रतिशतों तथा मौद्रिक मजदूरी की दरों में होने वाले परिवर्तनों के प्रतिशतों से सम्बन्धित आंकड़ों का विश्लेषण किया, जिसे बाद में मूल्य में परिवर्तनों की दरों तथा बेरोजगारी में परिवर्तनों की दरों में परिवर्तित कर दिया गया तथा रेखाचित्रीय प्रदर्शन किया। फिलिप्स (Phillips) के रेखाचित्रीय प्रदर्शन में प्राप्त वक्र को जो मजदूरी या मूल्य में प्रतिशत परिवर्तन तथा बेरोजगारी में प्रदर्शित परिवर्तन के बीच सम्बन्ध प्रदर्शित करता है, फिलिप्स वक्र (Phillips Curve) कहा जाता है।
इसका प्रमुख उद्देश्य (क) यह ज्ञात करना था कि ब्रिटिश अर्थव्यवस्था में इस अवधि में माँग प्रेरक तत्त्व या लागत वर्द्धक तत्त्व अपेक्षाकृत अधिक प्रभावपूर्ण था तथा (ख) यह निर्धारित करना था कि किसी सीमा तक प्रतिबन्धित मौद्रिक तथा वित्तीय नीतियाँ मुद्रा स्फीति के नियन्त्रण में अधिक सफल हो सकती है।
अर्थशास्त्रियों ने फिलिप्स वक्र (Phillips Curve) की आलोचना की है और कई जगह पर संशोधन भी किया है। उनका मत है कि फिलिप्स वक्र अल्पकाल से सम्बन्ध रखता है और स्थिर नहीं रहता। यह स्फीति की प्रत्याशाओं में परिवर्तनों के साथ सरक जाता है। दीर्घकाल में स्फीति और रोजगार के बीच विनिमय नहीं होता है। इन मतों की स्थापना फ्रीडमैन तथा फैल्प्स ने की है और उनका सिद्धान्त ‘त्वरणवादी’ या ‘अनुकूलित प्रत्याशाएँ’ परिकल्पना के नाम से प्रसिद्ध है।
फ्रीडमैन के अनुसार स्फीति और बेरोजगारी के बीच विनिमय का वर्णन करने के लिए एक स्थिर नीचे दाईं ओर ढालू फिलिप्स वक्र (Phillips Curve) मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। वास्तव में, यह सम्बन्ध एक अल्पकालीन घटना है। परन्तु कई चर होते हैं जिनके कारण फिलिप्स वक्र दीर्घकाल में सरकता है। इसमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण चर स्फीति की प्रत्याशित दर है। जब तक स्फीति की वास्तविक दर और प्रत्याशित दर के बीच अंतर है तब तक नीचे दाई ओर ढालू फिलिप्स वक्र होगा। परन्तु जब यह अंतर दीर्घकाल में समाप्त हो जाता है तो फिलिप्स वक्र अनुलम्ब हो जाता हैं।
इसकी व्याख्या करने के लिए फ्रीडमैन ‘बेरोजगारी की प्राकृतिक दर’ की धारणा को प्रस्तुत करता है। यह बेरोजगारी की वह दर है जिस पर अर्थव्यवस्था प्रायः अपनी संरचनात्मक त्रुटियों के कारण टिकती है। यह वह बेरोजगारी दर है जिसके नीचे स्फीति दर बढ़ती है, और जिसके ऊपर स्फीति दर घटती है। इस दर पर स्फीति दर की प्रवृत्ति न तो बढ़ने की और न ही घटने की होती है। इस प्रकार बेरोजगारी की प्राकृतिक दर को बेरोजगारी की ऐसी दर के रूप में परिभाषित किया जाता है। जिस पर स्फीति की वास्तविक दर और स्फीति की प्रत्याशित दर बराबर होती है। अतः यह बेरोजगारी की एक संतुलित दर है जिस ओर अर्थव्यवस्था दीर्घकाल में जाती है। दीर्घकाल में, बेरोजगारी की प्राकृतिक दर पर फिलिप्स वक्र (Phillips Curve) एक अनुलम्ब रेखा होती है।
यह प्राकृतिक या संतुलित बेरोजगारी दर हर समय के लिए निश्चित नहीं होती है। बल्कि यह अर्थव्यवस्था के भीतर वस्तु बाजारों और श्रम की अनेक संरचनात्मक विशेषताओं द्वारा निर्धारित होती है ये न्यूनतम मजदूरी नियम, अपर्याप्त रोजगार सूचना, मानव-शक्ति प्रशिक्षण में कमियाँ, श्रम गतिशीलता की लागत एवं अन्य बाजार अपर्णा हो सकती हैं। लेकिन जिस कारण से फिलिप्स वक्र दीर्घकाल में शिफ्ट करता है वह स्फीति की प्रत्याशित दर है। इसका सम्बन्ध इस बात से हैं कि श्रम किसी सीमा तक ठीक-ठीक स्फीति पूर्वानुमान लगाता है और वह मजदूरों को पूर्वानुमान के अनुसार अनुकूल कर सकता है।

मान लें कि अर्थव्यवस्था स्फीति की 2 प्रतिशत की मंद दर पर चल रही है और बेराजगारी की प्राकृतिक दर (N) 3 % की है। चित्र में अल्पकालीन फिलिप्स वक्र SPC1 के A बिन्दु पर लोग भविष्य में स्फीति की यही दर रहने की आशा करते हैं। अत मान लें कि सरकार बेरोजगारी की दर को 3 प्रतिशत से 2 प्रतिशत कम करने के लिए समस्त माँग बढ़ने हेतु मौद्रिक रोजकोषीय प्रोग्राम अपनाती है। समस्त माँग में वृद्धि 2 प्रतिशत की बेरोजगारी दर के अनुरूप स्फीति दर को 4 प्रतिशत बढ़ायेगी। जब वास्तविक स्फीति दर (4%) प्रत्याशित स्फीति दर (2%) से अधिक होती है तो अर्थव्यवस्था SPC1 वक्र पर A बिन्दु से B बिन्दु पर जाती है और बेरोजगारी दर अस्थायी रूप से 2 प्रतिशत तक गिरती है। यह इसलिए होता है है कि श्रमिक ठगा गया है। वह 2 प्रतिशत की स्फीति दर की आशा रखता था जिस पर उसकी मजदूरी माँग आधारित थी। लेकिन अंत में श्रमिक यह समझने लगते हैं कि स्फीति की वास्तविक दर 4 प्रतिशत है जो अब स्फीति की उनकी प्रत्याशित दर बन जाती जब एक बार ऐसा होता है तो अल्पकालीन फिलिप्स वक्र SPC1 दाईं ओर SPC2 पर शिफ्ट कर जाता है।
अब श्रमिक स्फीति की 4 प्रतिशत की ऊँची प्रत्याशित दर के कारण मुद्रा मजदूरियों में वृद्धि की माँग करते हैं। वे ऊँची कीमतों के साथ रहना चाहते हैं और वास्तविक मजदूरियों में गिरावट को दूर करना चाहते हैं। परिणामस्वरूप, वास्तविक श्रम लागत बढ़ेगी, फर्में मजदूरों को हटायेंगी और SPC1) वक्र के SPC2 वक्र में बदलने के साथ बेरोजगारी B बिन्दु से (2%) से (C) बिन्दु (3%) को बढ़ेगी। (C) बिन्दु पर बेरोजगारी की प्राकृतिक दर पुन: स्थापित हो जाती है जो दोनों वास्तविक और प्रत्याशित स्फीति की ऊँची दर (4%) है।
यदि सरकार का 2 प्रतिशत का बेरोजगारी स्तर कायम रखने का निश्चय है तो वह केवल स्फीति की ऊँची दरों की लागत पर ऐसा कर सकती है। SPC2 वक्र पर (C) बिन्दु से समस्त माँग में वृद्धि द्वारा बेरोजगारी को एक बार पुन: 2 प्रतिशत तक घटाया जा सकता है, जब तक हम (D) बिन्दु पर नहीं पहुँचते हैं। (D) बिन्दु पर 6 प्रतिशत स्फीति और 2 प्रतिशत बेरोजगारी के साथ मजदूरों के लिए स्फीति की प्रत्याशित दर 4 प्रतिशत हो। ज्यों ही वे 6 प्रतिशत स्फीति दर की नई परिस्थितियों में अपनी प्रत्याशियों को व्यवस्थित करते हैं तो अल्पकालीन फिलिप्स वक्र पुनः ऊपर SPC3 पर शिफ्ट कर जाता है और बेरोजगारी E बिन्दु पर 3 प्रतिशत की अपनी प्राकृतिक दर पर पुनः बढ़ जाएगी। यदि A, C और E बिन्दुओं को मिलाया जाता है तो बेरोजगारी की प्राकृतिक दर पर एक अनुलम्ब दीर्घकालीन फिलिप्स वक्र LPC खींचा जाता है। वक्र पर बेरोजगारी और स्फीति के बीच विनिमय नहीं होता है। बल्कि A.C और E बिन्दुओं पर स्फीति की कई दरों में से कोई एक दर 3 प्रतिशत की प्राकृतिक बेरोजगारी दर के साथ मेल खाती है। बेरोजगारी दर में इसकी प्राकृतिक दर के नीचे कोई भी कटौती तेजी से बढ़ रही और अन्त में एक विस्फोटक स्फीति लायेगी। लेकिन यह केवल अस्थायी तौर से संभव है जब तक कि श्रमिक स्फीति दर का कम या अधिक अनुमान लगाते हैं । दीर्घकाल में, अर्थव्यवस्था प्राकृतिक बेरोजगारी दर पर स्थापित होने के लिए बाध्य होगी। इसलिए, अल्पकाल के सिवाय बेरोजगारी और स्फीति के बीच विनिमय नहीं होता है। इसका कारण यह है कि स्फीतिकारी प्रत्याशाएँ, भूतकाल में स्फीति में क्या हुआ है, इसके अनुसार संशोधित की जाती हैं। इसलिए जब स्फीति की वास्तविक दर चित्र में 4% तक बढ़ती है तो श्रमिक कुछ समय तक 2 प्रतिशत स्फीति की आशा लगाये रखते हैं और केवल दीर्घकाल में वे 2 प्रतिशत से ऊपर 4 प्रतिशत तक अपनी प्रत्याशाएँ संशोधित करते हैं। क्योंकि वे अपने को प्रत्याशाओं के अनुकूल करते हैं इसलिए इसे अनुकूलित प्रत्याशा परिकल्पना भी कहा जाता है। इसे परिकल्पना के अनुसार स्फीति की प्रत्याशित दर सदैव वास्तविक दर के पीछे रह जाती है। परन्तु यदि वास्तविक दर स्थिर रहती है तो प्रत्याशित दर अंत में इसके बराबर होगी। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि स्फीति और बेरोजगारी के बीच अल्पकालीन विनिमय होता है परन्तु दोनों के बीच दीर्घकालीन विनिमय नहीं होता है जब तक कि एक निरन्तर बढ़ती स्फीति दर सहन नहीं की जाती है।
फिलिप्स वक्र (Phillips Curve) की आलोचनाएँ:
निम्न आधारों पर फ्रीडमैन की त्वरण वाली परिकल्पना की आलोचनाएँ की गई हैं:
1. अनुलम्ब दीर्घकालीन फिलिप्स वक्र स्फीति की सतत दर से संबंधित दर है। परन्तु यह सही विचार नहीं है क्योंकि बिना ससत अवस्था को पहुँचाने की प्रवृत्ति के, अर्थव्यवस्था सदैव असंतुलित स्थितियों की श्रेणियों से होकर गुजरती हैं। ऐसी स्थिति में, प्रत्याशाएँ वर्ष प्रतिवर्ष विफल हो सकती है।
2. फ्रीडमैन कोई नया सिद्धान्त नहीं देता है कि प्रत्याशाएँ कैसे बनाई जाती हैं जो सैद्धातिक और सांख्यिकीय पक्षपातों से स्वतंत्र होगी। इससे उसकी स्थिति अस्पष्ट रहती है।
3. अनुलम्ब दीर्घकालीन फिलिप्स वक्र से अभिप्राय है कि सभी प्रत्याशाएँ संतुष्ट है और लोग भविष्य की स्फीति दरों का सही सही अनुमान करते हैं। आलोचकों का कहना है कि लोग स्फीति दरों का सही-सही अनुमान नहीं कर पाते, विशेष रूप से, जब कुछ कीमतों का दूसरों से अधिक तेजी से बढ़ना लगभग निश्चित होता है। भविष्य की अनिश्चितता के कारण आपूर्ति और मांग के बीच असंतुलन होना और बेरोजगारी की दर से वृद्धि होना निश्चित होता है। बेरोजगारी को खत्म करना तो दूर की बात है थोड़ी-सी इसे बेहद खराब स्थित में पहुँचा जा सकता है।
4. अपने एक लेख में फ्रीडमैन स्वयं इस संभावना को स्वीकार करता है कि दीर्घकालीन फिलिप्स वक्र बिल्कुल अनुलम्ब नहीं हो सकता, बल्कि स्फीति की बढ़ती मात्राओं के साथ नीचे दाईं ओर झुकता हो सकता है, जो बढ़ती हुई बेरोजगारी लायेगा।
5. कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है कि बेरोजगारी की ऊँची दर पर मजदूरी दरें नहीं बढ़ी हैं।
6. यह विश्वास किया जाता है कि मजदूरों में मुद्रा भ्रांति होती है। वे अपनी वास्तविक मजदूरी दरों की अपेक्षा अपनी मुद्रा मजदूरी दरों में वृद्धि पर अधिक चिंतित रहते हैं।
7. कुछ अर्थशास्त्री समझते हैं कि बेरोजगारी की प्राकृतिक दर एक छलावा मात्र है क्योंकि फ्रीडमैन ने उसकी कोई स्पष्ट परिभाषा देने का प्रयत्न नहीं किया है।
8. सॉल हाइमान ने अनुमान लगाया है कि दीर्घकालीन फिलिप्स वक्र अनुलम्ब नहीं होता बल्कि ऋणात्मक रूप से ढालू होता है। हाइमान का मत है कि यदि हम स्फीति दर में वृद्धि स्वीकार करने को तैयार हैं तो बेरोजगारी की दर स्थायी रूप से घटाई जा सकती है।
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