प्रो० हिक्स ने व्यापार चक्रों की व्याख्या करने के लिए एक नया सिद्धान्त दिया जिसे आधुनिक सिद्धान्त के नाम से जाना जाता है। उनके अनुसार, “चक्रीय उच्चावचनों का कारण गुणक प्रक्रिया एवं त्वरक प्रभाव का सम्मिलित परिणाम है। ” इसी आधार पर प्रो० हिक्स ने लिखा है, ‘गुणक तथा त्वरक सिद्धान्त उच्चावचन के सिद्धान्त की दो भुजाएँ हैं।”
हिक्स ने कुल निवेश को दो भागों में विभक्त किया है – (i) स्वाभाविक विनियोग तथा (ii) प्रेरित विनियोग। स्वाभाविक निवेश वे निवेश होते हैं जो एक निश्चित दर से होते रहते हैं, ये आय अथवा माँग के परिवर्तनों से प्रभावित नहीं होते। इसके विपरीत, प्रेरित निवेश वे निवेश हैं जो आय अथवा उत्पादन में परिवर्तन से प्रेरणा लेकर किये जाते हैं।
व्यापार चक्र का यह सिद्धान्त आय तथा विनियोग के पारस्परिक सम्बन्ध तथा दोनों के कारण उत्पादन व उपभोग में हुए परिवर्तनों की व्याख्या करता है। गुणक उपभोग पर (आय के द्वारा) निवेश के प्रभाव को व्यक्त करता है, जबकि त्वरक उपभोग में परिवर्तनों के निवेश पर पड़ने वाले प्रभाव को व्यक्त करता है। इन दोनों के एक-दूसरे पर डाले गये प्रभाव ही अर्थव्यवस्था के उच्चावचन पैदा कर देते हैं।
माना अर्थव्यवस्था में उत्पादन तथा विनियोग के बीच साम्य स्थापित है। अब यदि कोई नया स्वाभाविक निवेश किया जाता है तो गुण आय की मात्रा में निवेश से कई गुना वृद्धि कर देता है। आय बढ़ने से उपभोग बढ़ता है जिससे प्रेरित निवेश भी सन्तुलित हो जाता है। परन्तु प्रेरित निवेश उत्पादन को बढ़ाकर तथा उत्पादन में वृद्धि प्रेरित निवश को बढ़ाते हुए परस्पर अर्थव्यवस्था को सन्तुलित बिन्दु से दूर ले जाते हैं और उपज की ओर उठाने लगते हैं। एक अवस्था के बाद अर्थव्यवस्था ऊपर नहीं उठती। इस सीमा पर पहुँचकर विस्तारवादी प्रवृत्ति पर रोक लग जाती है और अन्त में इसकी गति गुणक व त्वरक की विपरीत क्रियाशीलता के कारण नीचे की ओर हो जाती है।
अग्रांकित तालिका में यह स्पष्ट किया गया है कि गुणक एवं त्वरक किस प्रकार आर्थिक उच्चावचन को उत्पन्न करते हैं?
गुणक एवं त्वरक क्रिया प्रतिक्रिया

उपर्युक्त तालिका की रचना दो मान्यताओं के आधार पर की गई है-
- सीमांत उपभोग प्रवृत्ति (MPC)= 0.5 है,
- त्वरक= 2 है।
तालिका के अनुसार:
- प्रथम अवधि में गुणक व त्वरक कार्यशील नहीं होते। अतः कुल आय प्रारम्भिक निवेश के बराबर है अर्थात केवल ₹200 है।
- द्वितीय अवधि में प्रेरित उपभोग ₹100 करोड़ (MPC= 0.5) है, निवेश में ₹ 200 करोड़ (त्वरक= 2) की वृद्धि होती है। अतः द्वितीय अवधि में आय में कुल वृद्धि ₹500 करोड़ होती है।
- तीसरी अवधि में उपभोग व्यय= ₹250 करोड़ होगा। इस प्रकार उपभोग व्यय में ₹150 करोड़ की वृद्धि होगी। प्रेरित निवेश ₹300 करोड़ होगा। कुल आय में ₹750 करोड़ की वृद्धि होगी।
- चतुर्थ अवधि में गुणक एवं त्वरक की परस्पर क्रिया के कारण कुल आय बढ़कर ₹825 करोड़ हो जायेगा।
- पाँचवीं अवधि में गुणक और त्वरक के अशक्त होने पर आय घटने लगती है।
व्यापार चक्र की विभिन्न अवस्थाएँ
माना किसी घटना के कारण विनियोग में वृद्धि होती है, तो आय में वृद्धि होती है। गुणक की क्रियाशीलता के कारण अतिरिक्त निवेश से सृजित आय में वृद्धि निवेश से अधिक होगी। आय में कितनी वृद्धि होगी, यह सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति पर निर्भर करता है। आय में वृद्धि के परिणामस्वरूप उपभोग माँग में वृद्धि हो जायेगी उनका उत्पाद बढ़ेगा। पूँजीगत उत्पादन में वस्तुओं की माँग बढ़ेगी, निवेश बढ़ेगा और इस प्रकार समृद्धि की स्थिति उत्पन्न होने लगेगी। तत्पश्चात्प्रा वैगिक निर्धारक क्रियाशील हो जायेंगे जो समृद्धि की स्थिति को समाप्त कर देंगे। ये प्रावैगिक निर्धारक इस प्रकार क्रियाशील होंगे- (i) जैसे आय बढ़ती जाती है, सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति घटती जाती है। अतः उपभोग व्यय में वृद्धि आय के में नहीं हो पाती, (ii) कीमतों के बढ़ने पर लाभ मजदूरी की तुलना में अधिक तेजी से बढ़ते हैं अतः आय का वितरण धनिकों के पक्ष में होने लगता है जिनकी उपभोग प्रवृत्ति अपेक्षाकृत नीची होती है,
(iii) जब तेजी कुछ समय के लिए रुक जाती है तो पूँजी उत्पादन बढ़ने लगता है तथा विनियोग कम लाभदायक सिद्ध होने लगता है।
रेखाचित्र द्वारा स्पष्टीकरण-

इस सिद्धान्त को चित्र द्वारा भी स्पष्ट किया जा सकता है। चित्र में (AA) रेखा स्वतन्त्र निवेश को दर्शाती है। यह एक सीधी पड़ी रेखा है जो यह दिखाती है कि इस प्रकार का विनियोग एक निश्चित दर से बढ़ता है। (EE) रेखा गुणक तथा त्वरक दोनों की परस्पर क्रिया द्वारा पैदा की गयी आय की वृद्धि को दर्शाती है। (EE) पूर्ण रोजगार की उच्चतम सीमा है। इससे अधिक राष्ट्रीय उत्पादन नहीं हो सकता है तथा (LL) धरातलीय रेखा है जिससे कम राष्ट्रीय आय नहीं हो सकती। मान लीजिए P0 (P Not) साम्य की स्थिति है और इस स्थिति में किसी अविष्कार के कारण नया विनियोग बढ़कर P1 पर पहुँच जाता है और आय बढ़ जाती है। इस वृद्धि के कारण त्वरक द्वारा और अधिक निवेश किया जाता है। अब गुणक क्रियाशील हो जाता है जिससे आय में कई गुना वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार गुणक तथा त्वरक दोनों के परस्पर प्रभाव द्वारा राष्ट्रीय आय P2 P1 मार्ग पर ऊपर बढ़ती रहती है। परन्तु यह वृद्धि (P1) पर रुक जायेगी। क्योंकि (EF) पूर्ण रोजगार की उच्चतम सीमा है। चूँकि (P1) पर पहुँचकर राष्ट्रीय आय में वृद्धि मन्द गति से बढ़ती है, इसलिए प्रेरित निवेश के घटने से व्यापार चक्र नीचे को चल पड़ता है। अतः P2 से राष्ट्रीय आय पुनः EE रेखा की ओर चल पड़ती है। निवेश घटता जाता है गुणक की विपरीत दिशा में क्रियाशीलता के कारण अर्थव्यवस्था P2 से नीचे चलकर Q1 पहुँच जाती है। Q1 धरातलीय रेखा है। राष्ट्रीय आय इससे कम नहीं हो सकती अत: व्यापार चक्र इससे और नीचे नहीं जायेगा। अर्थव्यवस्था, Q1 से Q2 तक सरकती जायेगी। यहाँ आय स्तर में कुछ वृद्धि होती है जिससे प्रेरित निवेश कुछ प्रोत्साहित होता है तथा मन्दी दूर होती हैं। इस प्रकार व्यापार चक्र ऊपर से नीचे की ओर चलता है।
हिक्स के व्यापार चक्र सिद्धांत की मान्यताएँ-
- वर्तमान उपयोग पिछली आय का फलन है,
- बचत और विनियोग गुणक इस रूप में हैं कि अर्थव्यवस्था में सन्तुलन पथ से दूर आर्थिक क्रियाओं से सीधे चक्रहीन रूप में जाना सम्भव है,
- गुणक तथा त्वरक के मूल्य स्थिर है,
- अर्थव्यवस्था प्रगतिशील है जिससे स्वायत्त निवेश स्थिर दर से इस तरह बढ़ता है ताकि अर्थव्यवस्था गतिमान सन्तुलन की स्थिति में बनी रहे,
- अर्थव्यवस्था उत्पादन के पूर्ण रोजगार स्तर से आगे विस्तार नहीं कर सकती।
- आर्थिक क्रियाओं के संकुचन की दशा में त्वरक की क्रियाशीलता विस्तार अवस्था की क्रियाशीलता से भिन्न होती है और यह भिन्नता आर्थिक क्रियाओं के उतार चढ़ाव के लिए महत्त्वपूर्ण हैं,
- औसत पूँजी उत्पाद अनुपात इकाई से अधिक है।
- उत्पादन और आय को सदैव वास्तविक रूप में नहीं नापा गया है।
हिक्स के व्यापार चक्र सिद्धांत का आलोचनात्मक मूल्यांकन-
हिक्स द्वारा प्रतिपादित व्यापार चक्र का आधुनिक सिद्धान्त व्यापार चक्र की विभिन्न अवस्थाओं तथा मोड़ बिन्दुओं का विश्लेषण अत्यन्त सन्तोषजनक ढंग से प्रस्तुत करता है तथा चक्रों की सामयिकता पर भी प्रकाश डालता है। इसके बावजूद हिक्स के सिद्धान्त की निम्नलिखित आलोचनाएँ की गयी हैं-
- यह सिद्धान्त निम्न अवास्तविक मान्यताओं पर आधारित हैं- (अ) व्यापार चक्र की विभिन्न अवस्थाओं के दौरान गुणक और त्वरक का मान स्थिर रहता है, (ब) त्वरक और पूँजी उत्पाद अनुपात स्थिर है, (स) व्यापार चक्र की विभिन्न अवस्थाओं में संतत गति से स्वायत्त निवेश होता रहता है।
- इस सिद्धान्त में पूर्ण रोजगार सीमा की परिभाषा उत्पादन पथ से स्वतन्त्र रूप में की गयी है।
- इस सिद्धान्त में व्यापार चक्र जैसी जटिल समस्या को पूर्णतया तकनीकी या यान्त्रिक कारण माना गया है जबकि वास्तविक जीवन में आर्थिक क्रियाओं में इतने यान्त्रिक परिवर्तन नहीं होते।
- ड्यूजनबेरी व लुन्डबर्ग के अनुसार स्वायत्त व प्रेरित विनियोग के बीच किया गया अन्तर बहुत अधिक मान्य है।
- इस सिद्धान्त में मौद्रिक साधनों की भूमिका स्पष्ट नहीं है। साथ ही उन्होंने वास्तविक शक्तियों के प्रभाव को आवश्यकता से अधिक महत्त्व दिया है।
- ड्यूजनबेरी के अनुसार हिक्स सिद्धान्त शिखर से मन्दी के शुरू होने की समुचित व्याख्या करने में असमर्थ है। इसका कारण यह है कि साधनों की कमी निवेश में आकस्मिक पतन और मन्दी नहीं ला सकती है।
- हैरड; हिक्स के इस तर्क से सहमत नहीं है कि मन्दी के तल पर स्वायत्त निवेश बढेगा।
- हिक्स के अनुसार व्यापार चक्र की विस्तार अवस्था की अपेक्षा संकुचन अवस्था अधिक लम्बी होती है। परन्तु युद्धोत्तरकालीन चक्रों के वास्तविक व्यवहार ने स्पष्ट कर दिया है कि व्यापार चक्र की विस्तारशील अवस्था उसकी संकुचनशील अवस्था की अपेक्षा बहुत अधिक लम्बी होती है।
उपर्युक्त आलोचनाओं के बावजूद निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि हिक्स का सिद्धान्त व्यापार चक्र का सबसे पूर्ण व व्यवस्थित सिद्धान्त है और यह पिछले सभी सिद्धान्तों से श्रेष्ठ है।
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One Reply to “हिक्स के व्यापार चक्र सिद्धांत की आलोचनात्मक व्याख्या”